Sunday, September 06, 2009

मरण सागर पारे

हाल हिन् में मैंने शिवानी जी के द्वारा लिखी गयी पुस्तक मरण सागर पारे पढ़ी ...इस पुस्तक में उन्होंने अपनी पुरानी यादें बांटी है . कुछ लिखने से पहले इस पुस्तक में गंगा बाबु के द्वारा संस्मरण कि जो परिभाषा दी गयी है उसे पहले आपलोगों को बताना चाहूँगा . गंगा बाबु अपने एक पत्र में शिवानी जी को लिखते हैं :
"संस्मरण ऐसा हो कि जिसे कभी देखा न हो, उसकी साक्षात् छवि ही सामने आ जाए, उसका क्रोध, उसका परिहास रसिकता, उसकी दयालुता, उसकी गरिमा, उसकी दुर्बलता, सब कुछ सशक्त लेखनी आँकती चली जाए "

शिवानी जी कि यह पुस्तक बिलकुल इस परिभाषा पर खरी उतरती है . तो आयी जब बात मैंने गंगा बाबू से शुरू कि है तो उनके बारे में हिन् पहले कुछ लिखा जाए .
एक वाकया में अगर गंगा बाबू के बारे में कहा जाए तो वे हिंदी के एक सजग प्रहरी थे जो कभी भी नाम के भूखे नहीं रहे . अपने संस्मरण "गंगा बाबू कौन " में शिवानी जी लिखती है :


" हिंदी का यह सच्चा सफल सेनानी, कभी किसी प्रशस्ति या यशख्याती का भूखा नहीं रहा . आज हिंदी ऐसे हिन् तप:पूत पूतों से बची है , जो जीवन-भर हिंदी को समर्पित रहे, जिन्होंने हिंदी के लिए सच्चे अर्थ में संघर्ष किया, किन्तु कभी भी अपने मुँह से अपने कृतित्व का प्रचार नहीं किया . शायद यही कारन है कि आज भी हिंदी के ही क्षेत्र में कार्य करनेवालों में अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो यह भी न्हीं जानते कि गंगा बाबू कौन थे . मुझे स्वयं रक बार ऐसी अनभिज्ञता ने क्षुब्ध किया था, जब भोपाल की ही एक गोष्ठी में मैंने गंगा बाबू की चर्चा की तो वहीँ के एक ऐसे साहित्यकर्मी ने , जो प्रतिवर्ष लाखों की साहित्यिक रेवडियाँ बाँटते हैं, दबंग स्वर में पूछा था , " यह गंगा बाबू हैं कौन?" "



एक और संस्मरण जो मेरे दिल को छू गया वह है " डाक्टर खजानचन्द्र " . गंगा बाबू जैसे साहित्य सेवा में जुड़े थे वैसे हिन्
डाक्टर खजानचन्द्र समाज सेवा में जुड़े थे . डाक्टर खजानचन्द्र का जन्म २५ अगस्त १८९७ को पंजाब के गुरुदासपुर में हुआ . १९२५ में उन्होंने किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज से एम.बी.बी.एस. की डिग्री ली . उसके बाद अल्मोडा में आकर उन्होंने क्षय रोगियों का मुफ्त में इलाज शुरू किया . उस ज़माने में यह रोग कैंसर के जैसा घटक मन जाता था . उनके बारे में आगे शिवानी जी लिखती है :

"इस बीच डाक्टर खजानचन्द्र शोधकार्य में संलग्न रहे . यक्ष्मा-सबंधी अनेक विषयों पर उनकी लेखनी निर्बाध रूप से चलती रही .
इस पर भी इस समाजसेवी ने अपना कार्यक्षेत्र, केवल चिकित्सा जगत तक हिन् सिमित नहीं रखा . सन १९३६ में उन्होंने अल्मोडा हाईस्कूल की स्थापना की . सन १९३८ से ४५ तक अल्मोडा म्युन्सिपल बोर्ड के चेयरमैन रहे . सन १९४३ में भारत के वायसराय लार्ड लिनलिथगो ने उनकी नि:स्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर उन्हें स्वयं पत्र लिखकर चिकित्सा-जगत की सेवा अवं दरिद्र जनता के प्रति प्रेम प्रर्दशित करने पर राय साहब की उपाधि देते हुए हार्दिक बधाई दी थी .

क्या हमारे लिए रसातल में डूबने जैसी बात नहीं है की जिसकी नि:स्वार्थ सेवा के लिए एक विदेशी शासक ने उसे आज से ५२ वर्ष पूर्व सम्मान से विभूषित किया था उसे आज तक हमारी स्वतंत्र सत्ता के गुणी जौहरी एक सामान्य-सी मान्यता का सम्मान भी नहीं दे पाए !!! "


आगे जब भी समय मिलेगा तो इन दोनों संस्मरण को मैं ब्लॉग पर पूरा लिख कर चढाऊंगा ....बहुत हिन् प्रेरनादायी है ...

इसके अलावा इसमें कई बड़ी-बड़ी हस्तियों की बातें भी शिवानी जी ने की है ,जैसे बंकिमचंद्र, महादेवी वर्मा , अमृत राय , पं. बनारसी दास चतुर्वेदी आदि .

आज अब हमारे बीच शिवानी जी नहीं रहीं , पर उनकी यादें और पुस्तकें तो सदा साथ हिन् रहेंगी . उनकी इसी पुस्तक से २ पंक्तियाँ उनके लिए :
गुरु रविंद्रनाथ की लिखी हुई हैं ये पंक्तियाँ
यात्री आमी ओरे
पारबे ना केऊ
रखते आमाय घरे !
(मैं तो यात्री हूँ रे, मुझे कोई पकड़कर रोक नहीं सकता ) .

Saturday, February 23, 2008

तीन प्याले चाय के ...


"अकेला चना भांड नही फोड़ता " ये कहावत बहुत हिन् प्रसिद्ध है , पर अगर मन में हो लगन और कार्य के प्रति निष्ठा तो क्या नहीं हो सकता है....... ऐसा हिन् कुछ हमारे एक अमेरकी मित्र Gorge mortenson ने कर दिखलाया । उनके शाहासिक कारनामे का जिक्र है उनकी लिखी पुस्तक Three Cups of Tea (तीन प्याले चाय के ... ) में

mortenson एक पर्वतारोही थे । सन १९९३ में mortenson अपने साथियों के साथ काराकोरम की दुर्गम घाटियों में पर्वतारोहण करने आए थे । इस चढाई के दौरान वो काफी कमजोर हो गए फ़िर उनकी देखभाल वहाँ के गाँव वालों ने की । तो जब mortenson सवस्थ हो गए तो जाने से पहले उन्होंने गाँव के मुखिया से पूछा की बोलो हम आपके लिए क्या कर सकते हैं? तो गाँव के मुखिया ने कहा की यहाँ कोई पढ़ाई-लिखाई का साधन नहीं है, अगर आप यहाँ विद्यालय खोल दे तो आपकी बड़ी कृपा होगी । और mortenson ने जाने के बाद अपना वादा निभाया और पैसे इकठ्ठा कर के उस क्षेत्र में विद्यालय खोला वो भी १ नहीं २ नहीं पूरे ६५ विद्यालय .........

अभी उनकी संस्था Central Asia Institute पाकिस्तान और अफगानिस्तान में महिलाओं के उत्थान के लिए भी कार्य कर रही है । ये भी तो एक तरीका हो सकता है आतंकवाद से लड़ने का, आप क्या कहते हैं ?

और ये हैं mortenson बच्चों के साथ .....

एक विदेशी इतनी दूर से आके इतना काम कर सकता है तो क्या हम अपने देश के बच्चों के लिए कुछ नहीं कर सकते ?

Sunday, August 19, 2007

एक गधे की आत्मकथा

कृष्ण चंदर के लोकप्रिय उपन्यास "एक गधे की आत्मकथा " में आदमी की भाषा में बोलने वाले एक गधे के माध्यम से समाज के विभिन्न पहलुओं पर करारा व्यंग्य किया गया है । इस उपन्यास के विचित्र संसार में सरकारी दफ्तरों के निठल्ले आफिसर, लाइसेंस के चक्कर में घूमने वाले व्यवसायी, चुनाव के जोड़-तोड़ में लगे नेता, साहित्य के मठाधीश , माडर्न आर्ट के नम पर जनता को चक्कर में डालने वाले कलाकार, अपने ही सुर से मोहित संगीतज्ञ, सौंदर्य के नम पर भोंदेपन को अपनाने वाली निठ्ल्ली महिलाएँ मानो कार्टून कि शक्ल में चलते फिरते नजर आते हैं ।

एक बहुत हिन् बेहतरीन पुस्तक है, एक बार अवश्य हिन् पढ़ें । वर्तमान परिवेश के बारे में एकदम सटीक चित्रण है इस पुस्तक में। कहानी के अंत में थोड़ी पकड़ ढीली हो गयी है फिर भी बार - बार पढने लायक पुस्तक हैं ।